यह इश्क नहीं आसां: साध्वी सिद्धा कवँर
Posted by सागर नाहर on 20, अक्टूबर 2006
महाराष्ट्र का सांगली शहर इन दिनों काफ़ी चर्चा में है, हो भी क्यों ना यहाँ एक जैन साध्वी ने जो नाटक किया उस से आप सब अन्जान नहीं होंगे। अब मूल बात पर आते हैं
अजमेर जिले के मसूदा के निकट रामगढ़ गांव में रहने वाली समता जैन जो कि बाबूलाल खाब्या की पुत्री है, ने जोधपुर के पार्श्वनाथ वाटिका में 10 फरवरी 2000 को आचार्य शुभचंद महाराज के सान्निध्य में दीक्षा ली थी। दीक्षा के बाद समता का नाम साध्वी श्री सिद्धाकंवर महाराज रखा गया। दीक्षा के समय समता उम्र मात्र १४ वर्ष थी। अब १४ वर्ष की उम्र में एक नन्ही बालिका जो अपने मन से कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ होती है को दीक्षा दी गई और दुनियाँ को अच्छी तरह से जाने बिना ही सिद्धा कवँर एक जैन साध्वी के रूप में अपना जीवन बिताने लगी।
जैसा कि होता आया है एक निश्चित उम्र के बाद में शरीर और मन की कुछ जरूरतें जन्म लेने लगती है २० वर्ष की सिद्धा कवँर उर्फ़ समता के मन में भी जरूरतें पैदा हुई और उसके आस पास उसे कोई नजर नहीं आया तो अपने सेवक जो साध्वी मंडल के साथ ही रहता है को अपना मार्गदर्शक पाया। और रात की रात साध्वी जी निकल भागी और जाते जाते एक बड़ा बवाल कर गयी, और बहुत दिनों से कोई नया मसाला ढूंढ रहे मीडीय़ा को एक मसाला दे गय़ी और सारे चैनल अपने कपड़ों की धूल झाड़ कर इस कांड के पीछॆ पड़ गये।
संजय भाई जोगलिखी में कहते है कि
नहीं संजय भाई जैन धर्म में दीक्षा लेना इतना मुश्किल है उतना ही आसान है दीक्षा से मुक्त होना या फ़िर से सांसारिक होना, मैं कई साधू साध्वियों को जानता हूँ जो अपनी दीक्षा से मुक्त हुए हैं और अभी सफ़ल सांसारिक जीवन जी रहे हैं, जिनमें एक तो सुरत में एक मेरे मित्र भी थे। दीक्षा के बाद फ़िर से सांसारिक जीवन में आने के नियम और जो कोई भी प्रावधान है उन पर में अभी रिसर्च कर रहा हूँ शीघ्र ही आप सब को बताऊंगा।
साध्वी सिद्धा कवँर ने जो कुछ किया उस को मैं सही नहीं मानता पर जिस लड़की ने ज्यादा दुनियाँ ( जैन धर्म के अलावा) ना देखी हो उससे यह सब किया हो मन नहीं मानता, लगता है उन सेवक महाराज ने साध्वी को बहलाया हो!! जिस सिद्धा ने जैन साध्वी के रूप में इतनी तकलीफें सही हो के लिये बहु आसान था एक सांसारिक की बातों में आकर बहल जाना। और ऐसे किस्से आए दिन होते रहते हैं यह कोई नहीं बात नहीं है, याद होगा सभी को स्वामी नारायण संप्रदाय के साधूओं की लीला जो नीली पीली फ़िल्मॊं के रूप में गुजरात में बहुत बिकी थी। सिद्धा ने तो कम से कम श्वेतांबरी रहते हुए तो यह सब नहीं किया , उन्होने सांसारिक जीवन में आने का निश्चय किया जिसके लिये उन्हें कोई रास्ता नहीं मिल रहा हो। ऐसे में सेवक जी ने उन्हे ऐसा घटिया रास्ता सुझाया कि वे बदनाम हो गयी, अगर वे चाहती तो श्वेतांबरी रहते हुए ही सारे आनंद ले सकती थी पर उन्होने ऐसा नहीं किया।
एक ऐसा ही किस्सा याद आता है कुछ वर्षों पूर्व हमारे गाँव में जन्मी की एक साध्वी जिन्होने साध्वी रहते हुए Phd भी की और लगभग ३० वर्षों की दीक्षा के बाद एक जैन संत के साथ निकल भागी जो कि खुद भी Phd डिग्री धारक थे। आप जानना चाहेंगे दीक्षा के समय उनकी उम्र क्या थी? उनकी उम्र थी लगभग ५ वर्ष !!! दरअसल जब वे ४–५ साल की थी और उनकी माँ को वैराग्य आ गया घर में नन्ही बच्ची को देखने वाला कोई नहीं था सो उस बच्ची को भी दीक्षा दे दी गयी! अब आप बतायें की सिद्धा कवँर या साध्वी डॉ….. वती जी का क्या दोष है/ था? दरअसल दोष था उस समाज और उन गुरुओं को जिन्होने यह दीक्षाएं दी और समाज भी इतना ही दोषी है जिन्होने दीक्षा के कार्यक्रम को उत्सव की तरह मनाया।
जैन धर्म में दीक्षा के लिये भी नियम होने चाहिये की जब तक लड़का या लड़की बालिग नहीं हो जाते उन्हें दीक्षा नहीं देनी चाहिये, लोग तर्क देते हैं कि कई महान साधू और साध्वियाँ बहुत कम उम्र में दीक्षा लेकर इतने विद्वान और महान बने है, पर वो यह बात भूल जाते हैं कि जिस तरह जमानाहम सब के लिये बदला है उन मुमुक्ष { दीक्षा के उम्मीदवार} के लिये भी बदला होगा।
गिरिराज जोशी said
सागरजी बूरा ना मानियेगा, मगर अपने को तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा।
प्रियंकर said
सागर भाई,
आपसे सहमत हूं . एक गतिशील और परिवर्तनशील समाज में धर्म जड़ कैसे रह सकता है .