गर्मी की छुट्टियाँ: यादें
Posted by सागर नाहर पर 2, जून 2013
रीठेल पोस्ट
लो फिर से मौसम में गर्मी आ गई, यहाँ हैदराबाद का तापमान 35 डिग्री से उपर जाने लगा है। दोपहर को सड़कें सूनी सूनी हो जाती है। तेज गर्म हवाओं के साथ धूल उड़ने लगी है अभी से। पर देखता हूँ बच्चों को चैन नहीं, धूप हो या छांव उन्हें खेलने से रोक पाना बड़ा मुश्किल काम है। आज बैठे बैठे अचानक ही बचपन की गर्मी की छूट्टियाँ याद आ गई। अंतिम परीक्षा के दिन पर्चा हल होते ही मानो कैद में से छूटे। कापियाँ किताबें आले में धर कर खेलने लग जाते (वैसे भी उन्हें पढ़ते थे ही कब ?)
हमारे मोहल्ले में मेरे तीन चार दोस्त हुआ करते थे और उन दोस्तों के दोस्तों को मिलाकर दस पन्द्रह लड़के मिल जाते थे। सबसे अच्छे दोस्त थे पारस और विजयेन्द्र जिसे हम विजू कहते थे। पारस तो जैन और विजू सिंधी था, पर यारी ऐसी कि सब एक थाली में खाना खा लेते थे।। पारस उम्र में लगभग चार-पाँच साल बड़ा था हमसे, पर दोस्त बड़ा गहरा था। जब मम्मी घर से बाहर नहीं निकलने देती दोपहर की तेज धूप में पारस के बुलाने पर; तो पारस हमें खेलने बुलाने के लिये नित्य नये नये तरीके ढूंढ लेता था, कभी सीटी, कभी कुत्ते की या कभी बिल्ली की आवाज निकालकर बुलाता पर पता नहीं कैसे मम्मी को पता चल जाता और हमें बाहर नहीं जाने देती। तब कुढ़ते और सोने का अभिनय करते हुए मम्मी के इधर उधर होने का इंतजार करते जैसे ही मम्मी इधर उधर हुई या सुस्ताने लगती कि हम बाहर भाग जाते।
फिर होती धमाचौकड़ी शुरु। एक ही खेल से थोड़ी देर में बोर हो जाते थे। और खेल भी हर घंटे में बदल जाते थे सात पत्थरों को बीच में रखकर गेंद से मारकर उन्हें फिर से जमाने वाला खेल सीतोलिया, चोर पुलिस, एक पाँव उपर रख कर और एक पाँव से दूसरों पकड़ने वाला लंगड़ी टांग, नदी पहाड, कंचे, गिल्ली डंडा आदि। गिल्ली डंडा और कंचे पापाजी नहीं खेलने देते थे पर फिर भी खेल लेते थे जब पापाजी दफ्तर में होते थे। कंचो में कई नये खेल इजाद किये थे जिसमें एक था “भूल चूक पीली माटी” जिसमे सभी खिलाड़ी अपने अपने समान संख्या में कंचे उसे देते जिसका नंबर होता था। वह उन कंचों को दूर बने एक छोटे से छेद जिसके के पास एक लाइन बनी होती थी, उस तरफ भूल चूक पीली माटी कह कर फ़ेंकता था, भूल चूक नहीं बोलने पर एक कंचे की सजा मिलती थी। अगर एक भी कंचा छेद में चला गया तो सारे कंचे उसके अगर नहीं गया तो दूसरों के कहे कंचे पर निशाना लगना होता था। निशाना सही लग गया तो ठीक वरना दूसरे का नंबर और हाँ क्रिकेट। उसे कैसे भूल सकते हैं।
स्पंज वाली लाल गेंद से क्रिकेट खेलते। जब नालियों में गेंद में भीग जाती तब निकाल कर फिर खेलने लगते। तब नाली में हाथ डालने पर भी कोई हिचक नहीं होती थी। पारस तो नाली के पास ही खड़ा होकर फ़िल्डिंग करता था। हर गेंद पर छक्का लगता था और भीगी स्पंज की गेंद से जो दीवारों पर निशान बनते वे आज भी कई पुराने मकानों पर बने हुए हैं क्यों कि उन मकानों के मालिक मद्रास या बैंगलोर रहते हैं और सालों तक अपने घर नहीं आते। जब भी राजस्थान जाना होता है उन निशानों में मेरे लगाये छक्के पर बने निशान को ढूंढने की असफल कोशिश करता हूँ। असफल इसलिये कि हमारे गांव छोड़ देने के बाद भी मोहल्ले में बच्चे तो बड़े होने ही थे और उन बच्चों ने भी हमसे दीवार पर गेंद से निशान बनाने का पराक्रम सीखा था ठीक उसी तरज जैसे हमने अपने से बड़े बच्चों से सीखा था।
उन दिनों हम के श्रीकांत, अज़हर और नवजोत सिद्धू के साथ विवियन रिचर्डस के दीवाने हुआ करते थे और अपने हर चौके और छक्के पर यूं इतराते कि मानो हम भी भविष्य के के. श्रीकांत या सिद्धू होंगे, यह भूल जाते कि विपक्षी टीम में भी कपिल देव या गावस्कर समझने वाले खिलाड़ी होंगे और फिर हमारी गेंदो की भी धुनाई होती। कोई भी बच्चा आउट होने पर नहीं मानता था कि वह आउट हो गया है क्यों कि विकेट कहाँ होते थे, दीवारों पर कोयले से तीन लकीरें खींच लेते थे। बाकायदा अंपायर भी हुआ करता था पर उसकी सुने कौन?
एक बार इसी तरह पारस अंपायर बना हुआ था और मैं बैटिंग कर रहा था, एक गेंद पर मैं आऊट नहीं था पर पारस ने मुझे आऊट घोषित कर दिया। मैने अंपायर को यानि पारस को ही पकड़ कर पीट दिया। उस जमाने में यह डर नहीं था कि अंपायर को पीटने पर खेलने पर साल दो साल का प्रतिबंध लग जायेगा। उसी शाम को पारस ने ही बदला ले लिया। चोर पुलिस खेलते समय मैं चोर बना था और पारस पुलिस…. 😦
कभी कभार जे एस साईकिल वाले से “अध्या” (छोटी साईकिल) जो आधे घंटे के लिये पच्चीस पैसे में किराये मिलती थी, घर से चुराये पैसों ( भाई मैं नहीं चुराता था यह सब पारस ही करता था) से ले जाकर घंटो तक करणी माता के मंदिर के पास तो कभी दशहरा मैदान में चलाते रहते। जे एस साईकिल वाले के नौकर को थोड़ी सेटिंग कर रखी थी सो समय लिखने में मेरे पक्ष में गड़बड़ कर देता था।
वर्षों बाद जब जे एस मिले तब राज का पता चला कि उन्हें सब पता था कि कौन कितनी साइकिल चलाता है और पैसे कितने देता है। उस दिन जे एस भाई ने अनुरोध किया कि मैं उनकी बड़ी साइकिल किराये पर लूं, मैने एकाद घंटे साईकिल चलाई और जब पैसे देने लगा तो उसने पैसे लेने से साफ मना कर दिया तब पता चला कि गाँवों में लोगों का एक दूसरे के प्रति कितना स्नेह है। मैं उस साईकिल वाले का कुछ नहीं लगता था पर जो प्रेम उससे मिलता था उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है।
साइकिल चलाने से थक जाते तो वही एक बरगद के पेड़ के नीचे प्याऊ थी जहाँ दोनो हाथों को आगे कर माई को कहते पानी पिलाने को तो माई एक जग जिसकी लम्बी नली से पानी बाहर निकलता था, को हमारे छोटे-छोटे हाथों में डालकर हमें पानी पिलाती। आधा पानी हाथों से निकल कर कोहनी से होते हुए कपड़ों को भीगोता और आधा मुंह में जाता। इस तरह पानी पीने में जो आनन्द मिलता वह आज फ्रिज के ठंडे पानी मे भी नहीं मिलता। बड़ा मन होता है प्याऊ का पानी पीने का पर अब ना तो उस जगह माई है और ना ही प्याऊ। वहीं पास में एक पान का गल्ला है जहाँ से लोग एक रुपये का पानी का पाउच खरीद लेते हैं और अपनी प्यास बुझा लेते हैं। मानो दुनियाँ की रफ्तार के साथ प्याऊ भी पिछड़ेपन का प्रतीक बन गई है।
आगे फिर कभी।
basant jain said
aapne to muje bhi mera bachpan yaad dila diya … js cycle store to muje bhi aaj tak yaad he
आशीष श्रीवास्तव said
अब पारस को ढुंढ कर इन बातो का सत्यापन कैसे किया जाये ?
ब्लॉग बुलेटिन said
आज की ब्लॉग बुलेटिन शो-मैन तू अमर रहे… ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
kavita verma said
bachpan ki yaade ..jindagi me bahut sari baate ham bhoolte hai lekin shayd bachpan aur doston ke sath bitaya samy hi hamesha yaad rah jata hai …abhi to aur bhi kai shararaten baki hain agli post ka intajaar rahega …
ब्लॉग - चिठ्ठा said
आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर “ब्लॉग – चिठ्ठा” के विविध संकलन में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
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