॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

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वाह स्वामी रामदेव

Posted by सागर नाहर पर 30, नवम्बर 2006

हम भारतीयों की एक बहुत बड़ी कमजोरी है कि हम सत्य को कभी स्वीकार नहीं कर सकते और जिनको हम महान मान लेते हैं उनके बारे में कही गई किसी भी अच्छी बुरी बात को सहन  करने की हममें हिम्मत नहीं होती। कल योग गुरु स्वामी रामदेव ने गांधीजी के बारे में कुछ बात कह दी कि लोग माफ़ी मंगवाने के लिये उनके पीछे टूट पड़े।
क्यों आज भी हम यह मानने को तैयार नहीं है कि आजादी की सफ़लता का श्रेय सिर्फ़ अकेले गाँधीजी को दिया जाना गलत है, अगर वाकई सिर्फ़ गांधीजी की वजह से हमें आजादी मिलनी होती तो कई वर्षों पहले मिल गयी होती जब उन्होने असहयोग आन्दोलन शुरु किया और बाद में उसे बन्द कर दिया था। आजादी दिलवाने में सुभाष बाबू, चन्द्र शेखर, भगत सिंह और हजारों शहीदों जिनका हम नाम भी नहीं जानते, का योगदान कम नहीं है। मेरे व्यक्तिगत मत से तो भारत की आजादी में अप्रत्यक्ष रूप से द्वितीय विश्व के खलनायक हिटलर का योगदान भी कम नहीं था जिसने विश्व युद्द के दौरान ब्रिटेन की हालत इतनी खोखली कर दी कि मजबूरन अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
अगर स्वामी रामदेव ने यह बात कही है तो इसमे कुछ भी गलत नहीं है, हमं इस बात का स्वीकार करना चाहिये कि सिर्फ़ गांधीजी को आजादी का श्रेय देने से उन हजारों शहीदों का अपमान होता है जिन्होने अपनी जानें दी। क्रान्तियाँ कभी बिना खडग और बिना ढ़ाल के नहीं मिलती, अगर सिर्फ़ गांधीजी के तरीकों से आजादी की कामना करते तो शायद आज भी हम गुलाम ही होते!
आजकल देश में एक ट्रेंड चला है जिसमें आप गांधीजी, गांधीवाद या गांधीगिरी की बात करने वालों को बुद्धिजीवी समझा जाता है और उनके बारे में कुछ भी कहने वालों को देशद्रोही जैसा समझा जाने लगा है। कांग्रेसियों के लिये तो सत्ता में आगे बढ़ने का जरिया भी है, आचरण भले ही गाँधीवादी ना हो पर बातें तो बड़ी बड़ी हाकेंगे।
सृजन शिल्पी जी ने लिखा
“लेकिन मैं कुछ विद्वानों के इस मत से सहमत हूँ कि गाँधीजी यदि लॉर्ड इरविन के साथ समझौते के समय अड़ गए होते तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी नहीं हुई होती और यदि गाँधी एवं नेहरू के मन में सुभाष चन्द्र बोस के प्रति दुराग्रह नहीं होता तो आजाद भारत को अपने उस अनमोल रत्न की सेवाओं से वंचित नहीं होना पड़ता। शायद गाँधीजी के मन में कहीं न कहीं यह महत्वाकांक्षा थी कि लोकप्रियता के मामले में कोई उनसे आगे नहीं निकल जाए, खासकर कोई ऐसा व्यक्ति जो उनके विचारों का विरोधी हो। उन्हें भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस की बढ़ती लोकप्रियता रास नहीं आई थी। लेकिन गाँधीजी के मन में इस तरह की भावना जगाने वाले जवाहरलाल नेहरू थे, जो अपने भावी प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाना चाह रहे थे। जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुनकर उन्होंने संभवत मोतीलाल नेहरू के अहसान को चुकाने की कोशिश की थी। कभी मोतीलाल नेहरू ने भी कांग्रेस में गाँधीजी के नेतृत्व को स्थापित करने में सहयोग किया था। नेहरू परिवार को भारतीय लोकतंत्र का शाही घराना बनाने में गाँधीजी की अहम भूमिका थी। नेहरू ने अपने उस वंशवाद को आगे बढ़ाया और कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार करते हुए उन्होंने अपने जीते जी इंदिरा गाँधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। वंशवाद को आगे बढ़ाने का यह सिलसिला आज तक जारी है और अब इसे तमाम दूसरे राजनीतिक दलों ने भी अपना लिया है। नेहरू परिवार को चुनौती दे सकने वाले किसी शख्स की कांग्रेस पार्टी में कभी अहमियत नहीं रही। विडंबना की बात यह रही कि जिस नेहरू परिवार ने गाँधी का सबसे अधिक इस्तेमाल किया, वह वास्तव में हमेशा गाँधीवाद के आदर्शों के विपरीत दिशा में सक्रिय रहा है।

यह एक कटु सत्य है कि गांधीजी को भी अपनी लोकप्रियता कम होने का खतरा था इस वजह से हमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को खोना पड़ा। जितना नुकसान देश का गाँधीजी के सिद्धान्तों और नेहरूजी की वजह से हुआ उतना किसी और वजह से नहीं हुआ। जो लोग वाकई जानना चाहते हैं कि देश को क्या नुकसान हुआ गाँधीजी के सिद्धान्तों की वजह से वे जरा एक बार यहाँ क्लिक करें। ना गाँधीजी ने नेहरूजी को प्रधानमंत्री बनाया होता, ना कश्मीर की समस्या पैदा हुई होती, जिसमें अब तक लगभग 70000 निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं।

कोई माने या नामाने पर मैं यह मानता हूँ कि सिर्फ़ स्वामी रामदेव में हिम्मत है इतना कहने कि वरना आधे से ज्यादा तो मुँह पर कुछ और कहते हैं और पीछे कुछ और!
एक बात और
क्या गाँधी भक्ति ही देश प्रेम का पैमाना है?

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यह इश्क नहीं आसां: साध्वी सिद्धा कवँर

Posted by सागर नाहर पर 20, अक्टूबर 2006

महाराष्ट्र का सांगली शहर इन दिनों काफ़ी चर्चा में है, हो भी क्यों ना यहाँ एक जैन साध्वी ने जो नाटक किया उस से आप सब अन्जान नहीं होंगे। अब मूल बात पर आते हैं

अजमेर जिले के मसूदा के निकट रामगढ़ गांव में रहने वाली समता जैन जो कि बाबूलाल खाब्या की पुत्री है, ने जोधपुर के पार्श्वनाथ वाटिका में 10 फरवरी 2000 को आचार्य शुभचंद महाराज के सान्निध्य में दीक्षा ली थी। दीक्षा के बाद समता का नाम साध्वी श्री सिद्धाकंवर महाराज रखा गया। दीक्षा के समय समता उम्र मात्र १४ वर्ष थी। अब १४ वर्ष की उम्र में एक नन्ही बालिका जो अपने मन से कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ होती है को दीक्षा दी गई और दुनियाँ को अच्छी तरह से जाने बिना ही सिद्धा कवँर एक जैन साध्वी के रूप में अपना जीवन बिताने लगी।

जैसा कि होता आया है एक निश्चित उम्र के बाद में शरीर और मन की कुछ जरूरतें जन्म लेने लगती है २० वर्ष की सिद्धा कवँर उर्फ़ समता के मन में भी जरूरतें पैदा हुई और उसके आस पास उसे कोई नजर नहीं आया तो अपने सेवक जो साध्वी मंडल के साथ ही रहता है को अपना मार्गदर्शक पाया। और रात की रात साध्वी जी निकल भागी और जाते जाते एक बड़ा बवाल कर गयी, और बहुत दिनों से कोई नया मसाला ढूंढ रहे मीडीय़ा को एक मसाला दे गय़ी और सारे चैनल अपने कपड़ों की धूल झाड़ कर इस कांड के पीछॆ पड़ गये।

संजय भाई जोगलिखी में कहते है कि

मैंने जैन साधूसाध्वीयों का जीवन काफी नजदीक से देखा हैं. जब दीक्षा ली जाती हैं तब बहुत उत्सव मनाया जाता हैं, जूलुस निकाले जाते हैं फिर बड़ी धूम धाम से दीक्षा दी जाती हैं. दीक्षा के बाद साधू या साध्वी को बहुत सम्मानीत स्थान मिलता हैं. साधू आजीवन स्त्रीयों को तथा साध्वीयाँ पूरूषो को छू नहीं सकते. यही वह विशेषता हैं जो उन्हे हम संसारी लोगो से ऊचाँ स्थान दिलाती हैं. अब हम जैसे आम संसारीयों की तरह वे भी किसी के प्रेम में पड़ जाए यह कौनसा समाज सह सकता हैं, अतः ऐसा होने पर समाज में उनका स्थान जितना ऊचाँ होता हैं उससे कहीं ज्यादा नीचे गीर जाता है. सबकी अनुमति लेकर सन्यास लिया जाता हैं, पर सबकी अनुमति लेकर फिर से संसारी बनने का प्रावधान नहीं हैं. अब ऐसे में कोई गुपचुप भागे नहीं तो क्या कर 

नहीं संजय भाई जैन धर्म में दीक्षा लेना इतना मुश्किल है उतना ही आसान है दीक्षा से मुक्त होना या फ़िर से सांसारिक होना, मैं कई साधू साध्वियों को जानता हूँ जो अपनी दीक्षा से मुक्त हुए हैं और अभी सफ़ल सांसारिक जीवन जी रहे हैं, जिनमें एक तो सुरत में एक मेरे मित्र भी थे। दीक्षा के बाद फ़िर से सांसारिक जीवन में आने के नियम और जो कोई भी प्रावधान है उन पर में अभी रिसर्च कर रहा हूँ शीघ्र ही आप सब को बताऊंगा।

साध्वी सिद्धा कवँर ने जो कुछ किया उस को मैं सही नहीं मानता पर जिस लड़की ने ज्यादा दुनियाँ ( जैन धर्म के अलावा) ना देखी हो उससे यह सब किया हो मन नहीं मानता, लगता है उन सेवक महाराज ने साध्वी को बहलाया हो!! जिस सिद्धा ने जैन साध्वी के रूप में इतनी तकलीफें सही हो के लिये बहु आसान था एक सांसारिक की बातों में आकर बहल जाना। और ऐसे किस्से आए दिन होते रहते हैं यह कोई नहीं बात नहीं है, याद होगा सभी को स्वामी नारायण संप्रदाय के साधूओं की लीला जो नीली पीली फ़िल्मॊं के रूप में गुजरात में बहुत बिकी थी। सिद्धा ने तो कम से कम श्वेतांबरी रहते हुए तो यह सब नहीं किया , उन्होने सांसारिक जीवन में आने का निश्चय किया जिसके लिये उन्हें कोई रास्ता नहीं मिल रहा हो। ऐसे में सेवक जी ने उन्हे ऐसा घटिया रास्ता सुझाया कि वे बदनाम हो गयी, अगर वे चाहती तो श्वेतांबरी रहते हुए ही सारे आनंद ले सकती थी पर उन्होने ऐसा नहीं किया।

एक ऐसा ही किस्सा याद आता है कुछ वर्षों पूर्व हमारे गाँव में जन्मी की एक साध्वी जिन्होने साध्वी रहते हुए Phd भी की और लगभग ३० वर्षों की दीक्षा के बाद एक जैन संत के साथ निकल भागी जो कि खुद भी Phd डिग्री धारक थे। आप जानना चाहेंगे दीक्षा के समय उनकी उम्र क्या थी? उनकी उम्र थी लगभग ५ वर्ष !!! दरअसल जब वे ४५ साल की थी और उनकी माँ को वैराग्य आ गया घर में नन्ही बच्ची को देखने वाला कोई नहीं था सो उस बच्ची को भी दीक्षा दे दी गयी! अब आप बतायें की सिद्धा कवँर या साध्वी डॉ….. वती जी का क्या दोष है/ था? दरअसल दोष था उस समाज और उन गुरुओं को जिन्होने यह दीक्षाएं दी और समाज भी इतना ही दोषी है जिन्होने दीक्षा के कार्यक्रम को उत्सव की तरह मनाया।

जैन धर्म में दीक्षा के लिये भी नियम होने चाहिये की जब तक लड़का या लड़की बालिग नहीं हो जाते उन्हें दीक्षा नहीं देनी चाहिये, लोग तर्क देते हैं कि कई महान साधू और साध्वियाँ बहुत कम उम्र में दीक्षा लेकर इतने विद्वान और महान बने है, पर वो यह बात भूल जाते हैं कि जिस तरह जमानाहम सब के लिये बदला है उन मुमुक्ष { दीक्षा के उम्मीदवार} के लिये भी बदला होगा।

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क्या भारत इसराइल बन सकता है?

Posted by सागर नाहर पर 21, जुलाई 2006

आतंकवाद पर परिचर्चा में अनुनाद जी की एक टिप्पणी थी
Israel kee neeti well-researched neeti hai. Bhaarat me usake alaawaa kuCh kaam nahee karegaa. Kisee galatphahamee me mat raho.
और संजय बेंगानी जी की एक टिप्पणी थी भारत इज्राइल क्यों नहीं बन सकता?
मैने इसराईल के बारे में जितना कुछ पढ़ा है मुझे पता चला है कि इसराईल को विदेशों में रह रहे यहूदी अपने देश के लिये बहुत पैसा भेजते हैं, और इसराईल में रह रहे यहूदियों का देश के लिये रक्षा फ़ंड मे वार्षिक १००० डॉलर हिस्सा होता है, यानि लगभग ४,८०,००,००,००० डॉलर(एकाद बिन्दी कम ज्यादा हो तो जोड़ लें) अब भारत का क्षेत्रफ़ल इसराईल से लगभग १५८ गुना ज्यादा है, और रक्षा बजट मात्र २.५ गुना क्या ऐसे में संभव है कि हम इसराईल की तरह आक्रामक हों जायें? क्या भारत की आर्थिक स्थिती इतनी समृद्ध है कि हम बार बार युद्ध कर सकें।
पैसा तो भारत को भारतीय एन आर आई भी बहुत भेजते है परन्तु वह देश के रक्षा कोष की बजाय़ मंदिरों, मदरसों और गिरजाघरों की दीवारें बनाने में ही खर्च हो जाता है। मुझे भी इसराईल के प्रति बहुत आकर्षण है, अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उनका तरीका जबरदस्त है परन्तु जिस दिन सुनील जी का यह चिठ्ठा पढा़ मन सोचने को मजबूर हो गया। क्या सही है क्या गलत मन इसी उधेड़बुन में है।
सुनील जी ने अपने इस चिठ्ठे में बहुत अच्छा लिखा है कि “मैं मानता हूँ कि केवल बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं, युद्ध से, बमों से नहीं. अगर एक आँख के बदले दो आँखें लेने की नीति चलेगी तो एक दिन सारा संसार अँधा हो जायेगा”

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क्या हर मुसलमान बुरा होता है-2

Posted by सागर नाहर पर 12, जुलाई 2006

पिछली प्रविष्टी लिखने से मेरा आशय किसी भी धर्म को क्लीन चिट देना या बुरा कहना से नहीं है। मेरे लेखों में कई विरोधाभास हो सकते हैं, उस का उत्तर मैं आगे देने की कोशिश करूंगा।
अच्छाई और बुराई यह मानवीय गुण है जो हर धर्म के लोगों में पाये जाते हैं। जिस तरह मैने शमीम मौसी को देखा है उस तरह एक और मुसलमान परिवार को देखा है जो हिन्दुओं से सख्त नफ़रत करते हैं।
उन दिनों की बात है जब मैं मोबाईल रिपेयरिंग का कोर्स मुंबई से सीख रहा था, रोज सुबह ५.३० की फ़्लाईंग रानी से मुंबई जाना और उसी ट्रेन से वापस आना।
एक दिन मुंबई से वापसी यात्रा के दौरान एक मुस्लिम परिवार साथ में था एक नवपरिणित महिला जो अपने मायके भरूच जा रही थी,एक ७-८ साल की बच्ची और उनके अब्बा भी थे। अब्बा और दीदी ऊँघने लगे और जैसा कि बच्चों की आदत होती है कविता बोलने/गुनगुनाने की बच्ची कुछ इस तरह बोलने लगी,
अल्लाह महान है
भगवान, भगवान नहीं शैतान है।
मैने बच्ची को पूछा आपको और क्या क्या आता है तो सुनिये उस ७-८ साल की बच्ची ने क्या बताया ” भगवान दोजख/ जहन्नुम में रहते हैं और अल्लाह जन्नत में रहते है, हिन्दू काफ़िर होते हैं। और कई बाते उस नन्ही बच्ची ने हिन्दूओं के सम्मान में सुनायी जो यहाँ लिखी नहीं जा सकती। फ़िर मैने उस बच्ची को पूछा यह सब आपको किसने बताया । उसने कहा हमारे मदरसे के मौलवी साहब ने। उस बच्ची को मैने समझाय़ा नहीं बेटा यह गलत है ना हिन्दू बुरे होते हैं ना मुसलमान पर बच्ची के मन में जो बात इतनी दृढ़ता से बैठ चुकी थी वो उसके मन से नहीं निकला।
वह यही कहती रही हिन्दू बुरे होते हैं। उसने मुझे भी पूछ लिया आप हिन्दू हो अंकल? मैं क्या कहता उसे….?
आप सोचेंगे कि पहले मुसलमानों की तारीफ़ और अब यह पोष्ट… पर क्या किया जाये मैं ना तो तथाकथित सेक्युलर बन सका हुँ ना ही तोगड़िया और बाल ठाकरे की तरह कट्टर हिन्दू, ना आस्तिक हुँ ना ही नास्तिक, भगवान होते हैं या नहीं पता नहीं। तुष्टिकरण किसे कहते हैं पता नहीं।मैं अजमेर की दरगाह शरीफ़ भी जा चुका हुँ और अक्षरधाम भी। मेरे मकान मालिक आर जोशूआ साहब चुस्त ईसाई हैं और मेरी पत्नी को बेटी मानते हैं, मैने कई ईसाईयों को देखा है जो हिन्दुओं का दिया प्रसाद छूते भी नहीं पर जोशूआ साहब मेरे घर का प्रसाद भी खाते हैं।
मुझे कट्टरतावाद से सख्त नफ़रत है चाहे वो हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो। मैं मुकेश जी का यह भजन सही मानता हुँ-
सुर की गति मैं क्या जानूँ, एक भजन करना जानूँ ।
अर्थ भजन का भी अति गहरा, उसको भी मैं क्या जानूँ ॥
प्रभु प्रभु कहना जानुँ, नैना जल भरना जानूँ।
गुण गाये प्रभू न्याय ना छोड़े, फ़िर तुम क्यों गुण गाते हो।
मैं बोला मैं प्रेम दीवाना, इतनी बातें क्या जानूँ ॥
प्रभु प्रभु कहना जानुँ, नैना जल भरना जानूँ।
यहाँ सुनें
अन्त में:
अनुनाद जी: हम ऐसा कैसे मान ही लें कि हर बम विस्फ़ोट में किसी एक ही मजहब के लोगों का हाथ होता है? क्यों कि दाऊद इब्राहीम जैसे लोगों की गैंग में हर धर्म के गुंडे है जो हर तरह का काम करते हैं, मानता हुँ कि मुसलमान अधिक कट्टर होते हैं, हिन्दू नहीं और रोना भी इसी का है कि हिन्दूओं मैं ही एकता नहीं है। जैन,ब्राह्मण, कायस्थ , और ना जाने क्या क्या, जब तक सारे लोग हिन्दू नहीं हो जाते बम विस्फ़ोट होते ही रहेंगे। हम परिचर्चा में और यहाँ बहस करते ही रहेंगे फ़िर कुछ दिनों बाद ज्यों का त्यों। फ़िर कोई बम विस्फ़ोट होगा फ़िर बहस यह कब रूकेगी उपर वाला जाने।
पंकज भाई: मैं फ़िर कहुंगा कि सारे इस्लामी आतंकवादी नहीं है।

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क्या हर मुसलमान बुरा होता है

Posted by सागर नाहर पर 12, जुलाई 2006

परिचर्चा में मुस्लिम आतंकवाद से शुरु हुई बात कहाँ तक पहुँच गई है, मैं भी वहाँ लिखना चाहता था परन्तु यहाँ लिखना ही ठीक लगा ।
कुछ मेरी भी सुनो, जैसा आप जानते हैं गोधरा दंगों और 1992 के दंगों के समय में सुरत, गुजरात में रह रहा था, दंगे के दिनों में मैने खुद मुसलमानों को मुसलमानों की दुकानें लूटते और हिन्दुओं को हिन्दुओं को नुकसान पहुँचाते देखा है।मेरे कहने का मतलब यह है कि दंगाईयों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता।
हमारे मकान मालिक स्व. हैदर भाई मुस्लिम थे, दो साल हम साथ रहे, उनके मांसाहार की वजह से कई बार हमारी बहस हुई, पर आज उस बात को १५ साल बीत चुके परन्तु प्रेम में कोई कमी नहीं आई, बड़े भाई बैंगलोर रहते हैं, जब भी सूरत आते सबसे पहले शमीम मौसी के पाँव छूने जाते हैं मेरा भी यही है जब तक सूरत रहा १५ दिन में एक बार उनके घर जाना पड़ता था। शायद मेरी सगी माँ जितना प्रेम करती है, उतना ही प्रेम शमीम मौसी करती है। हर बार मिठाई, फ़ल फ़्रूट आदि जबरदस्ती देती है, अगर मना करो तो कहती है कि तेरी माँ देती तो क्या मना करता? हम कुछ कह नहीं पाते, यह लिखते समय शमीम मौसी और उनके बच्चों फ़िरोज और शबनम का प्रेम याद कर आँख से आँसू टपक पड़े है। क्या हर मुसलमान बुरा होता है और हर हिन्दू जन्मजात शरीफ़?
जब हैदर भाई का निधन हुआ और मैं मौसी से मिलने गया तब पता चला कि मुस्लिम समाज में पति के निधन के बाद स्त्री ४० दिन तक किसी गैर मर्द से नहीं मिल सकती पर मौसी हम से मिली और हमारा प्रेम देख कर उनके समाज के दूसरे लोग भी आश्चर्यचकित हो गये। मैं अपने दोस्तों को भी अपने साथ उनके घर गया हुँ मेरे हिन्दू दोस्त भी नहीं मान पाते कि शमीम मौसी हिन्दू नहीं है! जब कि शमीम मौसी पक्की नमाजी मुसलमान स्त्री है और बिना नागा पाँचों वक्त की नमाज अदा करती है।
सुरत छोड़ते समय शबनम प्रसूति पर सुसराल से आयी हुई थी, मेरे पाँव छूने लगी मैने उसे ऐसा नहीं करने दिया और १५१/- उसे दिये तो मौसी ने मना कर दिया, मैने कहा मौसी आप कौन होती है भाई बहन के बीच में पड़ने वाली ? मैं मेरी बहन को कुछ भी दँ आप नहीं रोक सकती उस वक्त का दृश्य याद कर अब और लिखने की हिम्मत नहीं रही । आँखों से आँसू बह निकले है। उस दिन मेरे साथ मेरा एक मित्र जगदीश चौधरी था वह उस दिन रो पड़ा था ।
यह आप सब को शायद अतिशियोक्ती लग सकती है, परन्तु यह सच है और आप मुझसे शमीम मौसी का फ़ोन नं लेकर उनसे सारी बातें पूछ सकते हैं। वो महान मुसलमान महिला इस पर भी हमारा बड़प्पन जतायेगी कि सागर और शिखर बहुत अच्छे हैं जो हम से इतना प्रेम करते हैं । धन्य हैं एसे मुसलमान परिवार जिनके ह्रूदय में हिन्दू मुसलमान नहीं बल्कि प्रेम ही प्रेम भरा है।
जब कभी भी दंगे होते हैं हम अक्सर मुसलमान को कोसते है परन्तु मैं नहीं मानता कि हर मुसलमान बुरा होता है। हर मुसलमान दाऊद इब्राहीम नहीं होता, उनमें से ही कोई डॉ. कलाम बनता है, हमारे सुहैब भाई भी इस का सबसे अनुकरणीय उदाहरण है जो अपने आप को मुसलमान की बजाय हिन्दुस्तानी कहलाना ज्यादा पसन्द करते हैं।

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