॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

Archive for the ‘इतिहास’ Category

बचपन की मिठाई – मीठी नुकती

Posted by सागर नाहर पर 15, फ़रवरी 2017


बचपन में किसी दावत से जीम कर आते तो मम्मी-पापाजी या अड़ौस-पड़ौस के काकासा- काकीसा पूछते “सागर-आज क्या जीम कर आए हो”? हम उन्हें बड़ी खुशी से बताते चने की दाल की और मीठी कैरी या मीठी मैथी की सब्जी! वे फिर पूछते अरे मिठाई में क्या था? हम कहते नुकती (मीठी बूंदी) या बेसन की चक्की (बर्फी) कभी बालूशाही और कभी सिर्फ जलेबी।

Nukti.jpg जीमाने वाला या परोसगारी करने वाला (हमारे यहाँ पुरस्कारी कहते हैं) भी मनुहार कर के एकाद टुकड़ा जबरन थाली में रख ही देता और हम उपरी मन से ना-नुकर करते उस मिठाई को फटाफट खा लेते ताकि दूसरे परोसगार को भी मनुहार करने का मौका मिल सके।
आहा! बचपन के उन जीमणों का क्या लुत्फ़ आता था।

आजकल अक्सर दावतों में जाना होता रहता है लेकिन वो आनन्द – लुत्फ़ नहीं रहा। बीस तरह की मिठाईयां, बीस तरह के चाट-पूड़ी आदि के स्टॉल, आठ तरह की रोटियां, दस तरह की सब्जियां और चार पाँच तरह की आईसक्रीम! पेट भर जाता है लेकिन मन कभी नहीं भरता, बीस तरह की मिठाईयों में एक भी ऐसी नहीं होती जो बचपन की नुकती और चक्की की बराबरी कर सके, और ना ही दस तरह की सब्जियां उस चने की दाल की या कैरी या मीठी मैथी की। जिमाने वाला कोई नहीं होता ना ही कोई मनुहार कर एक टुकड़ा मिठाई और खाने का आग्रह करने वाला।

बचपन! अभी तो मन भर के जीमे भी नहीं थे और तुम चले भी गए… काश एक बार फिर से लौट आते।

फेसबुक पर 21 जून 2014 को पोस्ट

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पीथल और पाथलः कविता की लाईन में बदलाव क्यों?

Posted by सागर नाहर पर 29, अक्टूबर 2012

पापाजी जब भी फुर्सत में अलग- अलग विषयों पर बातें होती थी। एकाद बार साहित्य-कविता की चर्चा चली और बात कविता पर आई तो कन्हैया लाल सेठिया (kanhaiya Lal Sethiya) की सुप्रसिद्ध कविता “पाथळ अर पीथळ”   की बात निकली, पापाजी ने कविता देख कर बताया कि यह कविता सही नहीं है। मूल कविता में से इस कविता में कुछ शब्दों का फेर है। बात उस दिन अधूरी रह गई, पिछले महीने २ सितम्बर को पापाजी के जाने के बाद जब मैं, बड़े भाई साहब और  मम्मीजी बैठ कर उनके कागजों को देख रहे थे तब अचानक एक पुराने से कागज पर  यह कविता दिख गई।

पूरी पढ़ने पर मैं भी चकित रह गया, उसमें एक लाइन में बहुत बड़ा बदलाव था, यह बदलाव किसके दबाव में और कैसे हुआ होगा यह पता नहीं लेकिन उस खास एक  लाइन के निकल जाने से मुझे कविता का प्रभाव थोड़ा सा कम  होता महसूस हुआ। नीचे पूरी कविता  फिर से लिख रहा हूँ जिन्होने इसे पहले पढ़ी है, वे के बार फिर से पढ़ें। जो बदलाव  हैं वे Bold  और लाल रंग में  है।

पीथल और पाथलः कन्हैयालाल सेठिया


अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरयो चीख पड़्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड़्यो घणो हूं  सह्‍यो घणो, मेवाड़ी मान बचावण नै
हूं पाछ नहीं राखी रण में,  बैरयाँ री खात खिंडावण में, (बैरयाँ रो रगत बहावण नैं)

जद याद करूं हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूं जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूं , भूलूं हिंदवाणी चोटी नै

मै’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाळ्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
ऐ हाय जका करता पगल्या फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया,  हिंदवाणी सूरज रा टाबर,

आ सोच हुई दो तूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो  लियां,
चितौड़ खड़्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,

मैं झुकूं कियां? है आण मनैं  कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां हूं सेस लपट  आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूं दिल्ली (मलैच्छ)  तनैं समराट् सनेशो  कैवायो।

राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो  सांचो,
पण नैण करयो बिसवास नहीं जद बांच बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो कै आज हुयो सूरज  सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो आ सोच हुयो समराट् विकळ,

बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण  नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण  नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै  रजपूती (वीर करारी हो) गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो  राणा रो प्रेम पुजारी हो,


बैरयाँ रै मन रो कांटो हो बीकाणूं पूत करारो  हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी (सांचे) तेज दुधारो  हो,
आ बात पातस्या जाणै हो  घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो राणा री हार बंचावण  नै,


म्हे बांध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख  (बाँच) हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़?
मर डूब चळू भर पाणी में (तू थोथा  गाल बजावै हो) बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,

मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै कुण रजवट रै रजपूती खून रगां में है?

जद पीथळ कागद ले देखी  राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई  आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी  है।


ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं  राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं आ बात सही, बोल्यो अकबर,


म्हे आज सुणी है नाहरियो  स्याळां रै सागै सोवैलो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो  बादळ री ओटां खोवैलो,
म्हे आज सुणी है चातगड़ो  धरती रो पाणी पीवैलो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो  कूकर री जूणां जीवैलो,


म्हे आज सुणी है (छतां) थकां खसम  अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में  तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ राणा नै लिख भेज्यो, आ बात कठै तक गिणां सही?

पीथळ रा आखर पढ़तां ही  राणा री आंख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूं कायर हूं  नाहर री एक दकाल हुई,
हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं  मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूं घोर उजाड़ां में भटकूं पण मन में मां री याद  रवै,

हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज  चुकाऊंला,(धरम निभाऊंला)
ओ सीस पड़ै पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान झुकाऊंला, (घटाऊंला)
पीथळ के खिमता बादळ री  जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै  बा कूख मिली कद स्याळी नै?

धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी  हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तरवार थकां कुण रांड कवै है रजपूती?
म्यानां रै बदळै बैरयाँ री छात्यां में रैवैली अब सूती,

मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकैलो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्यां ऐंठ्योड़ी (मोडयोड़ी)  लोही री नदी बहा द्‍युंला
(हूँ तुर्क कहूंला अकबर ने)
हूं अथक लड़ूंला अकबर स्यूं,  उजड़्यो मेवाड़ बसा द्‍युंला,

जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणी सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।

यहाँ यह लाईन “हूँ तुर्क कहूंलां अकबर ने” की जगह हूँ  “अथक लड़ूलां अकबर स्यूं” इस लाइन में बदलाव का कारण समझ में नहीं आया, क्या इस शब्द  “तुर्क कहूंला” पर किसी  को आपत्ति थी..?

अन्य ब्लॉग्स में  पाथळ अर पीथळ

पीथल और पाथलः कन्हैयालाल सेठिया,   अरे घास री रोटी ही पातळ’र पीथळ,   ज्ञान दर्पण

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एक और गुमनाम विद्वान

Posted by सागर नाहर पर 1, सितम्बर 2006

कुछ दिनों पहले वन्दे मातरम पर एक महान भारतीय वैज्ञानिक आचार्य प्रफ़ुल्ल चन्द्र राय पर एक लेख पढ़ा, ऐसे ही एक और विद्वान के बारे में आपको बताने जा रहा हुँ, जिन्होने वनस्पति शास्त्र जैसे कठिन विषय को गुजरात की जनता के लिये समझना आसान कर दिया।

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गाँधीजी की जन्मभूमि पोरबन्दर में सन १८४९ जन्में इन महान विद्वान का नाम था जयकृष्ण इन्द्रजी ठाकर (જયકૃષ્ણ ઇન્દ્રજી ઠાકર)  स्कूल की आठ आने की फ़ीस ना भर पाने की वजह से अंग्रेजी माध्यम से कक्षा तीन तक ही पढ़ पाये, क्यों कि कक्षा की फ़ीस रुपया महीना थी जो कि इन्द्रजी के लिये भर पानी मुश्किल थी।

मात्र कक्षा तीन तक पढ़ पने वाले इन्द्र जी को डॉ भगवान लाल इन्द्रजी का सानिध्य मिलते ही उन्होने इन्द्रजी के अन्दर छुपे विद्वान को पहचान लिया और उन्हीं की मदद से इन्द्र जी वनस्पती शास्त्र के महापंडित बने।

वनस्पति शास्त्र पर इन्द्रजी ने सबसे पहले १९१० में एक गुजराती पुस्तक लिखी जिसका नाम था वनस्पति शास्त्र इस पुस्तक को देख कर उस समय के अंग्रेज विद्वान चौंक गए और उन्होने इन्द्रजी से इस पुस्तक को अंग्रेजी में लिखने का आग्रह किया तब उनका उत्तर था:

आप अंग्रेज भारत के किसी भी प्रांत में पैदा होने वालि वनस्पति को पहचान सकते हो, हिन्द की वन्स्पति पर पुस्तक भी लिखते हो परन्तु हम हमारे यहाँ पैदा होने वाली वनस्पति को नहीं पहचान पाते हैं; आप जिस पद्दति से दुनियाँ भर की वनस्पति को पहचान लेते हो उसी पद्दति को में अपने देश वासियों को बताना चाहता हुँ अत: मैंने इस पुस्तक को गुजराती में ही लिखने का निश्चय किया है।

७५५ पृष्ठ की और १०रुपये मूल्य की इस पुस्तक में इन्द्र जी ने लगभग ६११ वनस्पतियों का वर्णन, वनस्पति को पहचानने के तरीके साथ ही गुजराती श्लोक और दोहे कविताओं के माध्यम से वनस्पति के उपयोग का विस्तृत वर्णन किया था। इसी पुस्तक को पढ़ कर गांधीजी ने अपने अफ़्रीका वास के दौरान नीम को दवाई के रूप में उपयोग में लिया था। पर अफ़सोस कि अपनी पत्नी के गहने गिरवी रख कर यह पुस्तक प्रकाशित करवाने के बाद भी यह पुस्तक इतनी नहीं बिक पाई। यानि पुस्तक की पहली आवृति बिकने में लगभग १७ वर्ष बीत गये पर इन्द्रजी निराश नहीं हुए और कच्छ के महाराजा के अनुरोध और सहयोग से उन्होने दूसरी पुस्तक लिखी जिसका नाम था कच्छ नी जड़ी बूट्टियों इस पुस्तक में इन्द्रजी ने लगभग १०० जड़ी बूटीयों का सचित्र परिचय दिया था। उस जमाने में वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों को साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जाता था ( अब भी नहीं रखा जाता है) इस वजह से यह पुस्तक भी इतनी प्रसिद्ध नहीं हो पाई, परन्तु बनारस हिन्दू विश्व विध्यालय के पं मदन मोहन मालवीय ने इन्द्र जी को निमंत्रण दिया कि वे काशी आवें और वनस्पति शास्त्र में सहाय़ता करें।

मैं बड़ा अहसान मानूंगा यदि आप कृपाकर यहाँ आवें और विद्वानों की मंडली में काशी वास का सुख अनुभव करें और आयुर्वेद के उद्धार और उन्नति में सहायता पहुँचाने के लिये वनस्पति वनBotenical Garden बनाने में संमति और सहायता दें।

परन्तु वृद्धावस्था की वजह से इन्द्रजी, पं मदन मोहन मालवीय का पस्ताव स्वीकार नहीं सके और उन्होने लिखा:

अब यह शरीर ७६ वर्ष का जीर्ण हुआ है, कर्ण बधिर हुआ है, मुंह में एक दाँत शेष रहा है। बरसों तक जंगल में भटकने से अब कमर भी अकड़ रही है…. दीपोत्सव के बाद स्वास्थय होगा तो एक समय बनारस विश्वविध्यालय के आयुर्वेदिक विभाग में वनस्पति वन के दर्शन कर कृतार्थ होउंगा

(उस जमाने में पत्राचार की भाषा कितनी सुन्दर हुआ करती थी।)

परन्तु जयकृष्ण इन्द्रजी काशी नहीं जा पाये और सन १९२९ में लगभग ८० वर्ष की उम्र में वनस्पति शास्त्र के एसे प्रकांड विद्वान जयकृष्ण इन्दजी का निधन हो गया।

गुजरात समाचार (दिनांक28.10.2004) से साभार

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विश्व के सबसे क्रूर जल्लाद एडॉल्फ़ आईकमान की कहानी

Posted by सागर नाहर पर 5, मई 2006

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय और हिटलर के आत्महत्या कर लेने के बाद हिटलर की सेना के सारे जिन्दा बचे बड़े अधिकारी, जर्मनी से भाग गये। उनमें से एक अधिकारी एडॉल्फ़ आईकमान जो कि खास यहुदी जनता को सजा देने के लिये बनायी गयी खास टुकड़ी और गेस्टापो का मुखिया था, और जिसने विश्व युद्ध के दौराने मारे गये ६० लाख यहुदियों में से लगभग ५० लाख यहुदियों (जिनमें बच्चे और महिलायें भी थी) को तो खुद आइकमान ने अपने मार्गदर्शन और अपने सामने मरवाया था।

एसा क्रूर पशु समान इंसान जर्मनी की पराजय के बाद जरमनी से अपनी सारी पहचान मिटा कर भाग कर अर्जेन्टीना में जा छुपा और अर्जेन्टीआ में आईकमान रिकार्डो क्लेमेंट के नाम से रहने और मर्सेडीज बेन्ज़ में एक मामुली मज़दूर का काम करने लगा।

इस्रायल उसे भूला नहीं था और उसे उस के किये कर्मों की सजा देने के लिये मचल रहा था । परन्तु आइकमान शायद भूल गया था कि उस का पाला इस्रायल की जासूसी संस्था मोसाद के शातिर जासूसों से पड़ने वाला है। किस तरह मोसाद के प्रमुख इसर हेरेल ने इस्रायल से हज़ारों किलोमीटर दूर अर्जेन्टीना से उसे इस्रायल ला कर ( अपहरण कर) आईकमान को उसके अपराधों की सजा दिलवायी, बहुत जबरदस्त कहानी है अगर आप एसे वाकई पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ, यहाँ और यहाँ देखें पल पल आश्चर्य में डाल देने वाली और मोसाद के जासूसों को चुनौती देने वाली कहानी।यहाँ मोसाद के प्रमुख इसर हेरेल के किताब दी हाऊस ओन गेरीबाल्डी स्ट्रीट यहाँ देखिये।

पॉल पॉट के बारे में फ़िर कभी…..!!

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सावित्री बाई खानोलकर लेख – 2

Posted by सागर नाहर पर 8, अप्रैल 2006


सावित्री बाई खानोलकर लेख-1 से जारी
विवाह के बाद सावित्री बाई ने पुर्ण रुप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दु धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 वारी साड़ी पहनना शुरु कर दिया ओर 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगी; मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो, (आज हाल यह है कि भारत में जन्मी और हिन्दी फ़िल्मों मे अभिनय कर पैसा कमाने वाली अभिनेत्रियों को हिन्दी बोलना नहीं आता या जिन्हें आता है उन्हे हिन्दी बोलने में शर्म आती है).

कैप्टन विक्रम अब मेजर बन चुके थे और जब उनका तबादला पटना हो गया ओर सावित्री बाई को एक नयी दिशा मिली, उन्होने पटना विश्वविध्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दु धर्म पर गहन अध्ययन किया. ( रवि कामदार जी पढ़ रहे हैं ना), इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि वे स्वामी राम कृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं, सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने भी माहिर थी तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे. उन्होने पं. उदय शंकर ( पं. रवि शंकर के बड़े भाई )से नृत्य सीखा, यानि एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थी. उन्होने Saints of Maharashtra एवं Sanskrit Dictonery of Names नामक दो पुस्तकें भी लिखी.

मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे, भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिये पदक की आवश्यकता महसूस हुई.मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र ओर वीर चक्र. बस अब उनकी डिजाईन करने की देरी थी, मेजर जनरल अट्टल को इस के लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगी, क्यों कि सावित्री बाई को भारत के पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी, ओर अट्टल भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो ऐसा पदक चाहते थे, सावित्री बाई ने उन्हें निराश नही किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है.

सावित्री बाई को पदक की डिजाईन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र बना था महर्षि दधीची की अस्थियों से, वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़. महर्षि दधीची की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाये ओर वृत्रासुर का संहार किया.

पदक बनाया गया 3.5 से.मी का कांस्य धातु से और संयोग देखिये सबसे पहले पदक मिला किसे? सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को जो वीरता पुर्वक लड़ते हुए 3 नवंबर 1947 को शहीद हुए. उक्त युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया, भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए और श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर को बचाया.

मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया (इतनी देरी क्यों हुई अगर पाठकों को पता चलेगा तो तत्कालीन सरकार के कायर नेताओं पर बड़ा गुस्सा आयेगा, इस की कहानी फ़िर कभी, अगर पाठक चाहें तो )

मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के 1952 में देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया, वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयी. सावित्री बाई ने अपनी जिन्दगी के अन्तिम वर्ष अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे और 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हुआ.

यह कैसी विडम्बना है कि सावित्री बाई जैसी महान हस्ती के बारे में आज स्कूलों या कॉलेजों के अभ्यासक्रमों में नहीं पढ़ाया जाता, अनतर्जाल पर उनके बारे में कोइ खास जानकारी उपलब्ध नहीं है. (लेख लिखते समय कोशिश की गयी कि कहीं कोइ गलती ना हो फ़िर भी संभव है, उसके लिये पाठकों ओर सदगत सावित्री बाई से क्षमा याचना. अगर कोइ जानकारी जो यहाँ ना लिखी गयी हो, और पाठक जानते हों तो जरूर अवगत करावें, धन्यवाद) परमवीर चक्र के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मौजूद है

**समाप्त**

 

अमर शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा पर एक और लेख

जानकारी गुजराती मासिक पत्रिका “सफारी” से साभार

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चित्र पहेली का सही जवाब: सावित्री बाई खानोलकर

Posted by सागर नाहर पर 7, अप्रैल 2006

पहेली के लिये यहां देखें

यह चित्र ” इवा वान लिन्डा मेडे- डी-रोज़ की है, जैसा कि समीर लाल जी ने बताया, हंगरियन पिता और रशियन माता की स्विस पुत्री इवा का जन्म 20 जुलाई 1913 को स्विटज़रलेन्ड में हुआ. इवा के जन्म के तुरन्त बाद इवा की माँ का देहान्त हो गया.
15-16 वर्ष की उम्र में इवा को माँ की कमी खलने लगी ओर ठीक उन्ही दिनों ( सन 1929) ब्रिटेन की सेन्डहर्स्ट मिलिटरी कॉलेज के एक भारतीय छात्र विक्रम खानोलकर ऑल्पस के पहाड़ों पर छुट्टी मनाने ओर स्कीइंग करने पहुँचे.
जैसा होता आया है, विक्रम ओर इवा का परिचय हुआ, विक्रम ने इवा को भारतीय संस्कृति तथा इवा के मन को शान्ति मिले इस तरह की बातें बताई, विक्रम ओर इवा किसी को सपने में भी ख़्याल नहीं था कि नियती उन के साथ क्या खेल खेलने वाली है! छुट्टियां पुरी होने पर दोनों अपने अपने घर लौट गए.
पढ़ाई पुरी करने के बाद विक्रम भारत लौटे ओर भारतीय सेना की 5/11वीं सिख बटालियन से जुड़ गये. अब उनका नाम था कैप्टन विक्रम खानोलकर. उनकी सबसे पहली पोस्टिंग ओरंगाबाद में हुई. इवा के साथ उनका पत्राचार अभी तक जारी था, एक दिन इवा का पत्र मिला कि वो हमेशा के लिये भारत आ रही है, ओर वाकई इवा भारत आ पहुँची. इवा ने भारत आते ही विक्रम को अपना निर्णय बता दिया कि वह उन्हीं से शादी करेगी. घर वालों के थोड़े विरोध के बाद सभी ने इवा को अपना लिया और 1932 में महाराष्ट्रियन रिवाजों के साथ इवा ओर विक्रम का विवाह हो गया. विवाह के बाद इवा का नया नाम रखा गया सावित्री, ओर इन्हीं सावित्री ने सावित्री बाई खानोलकर के नाम से भारतीय सैन्य इतिहास की एक तारीख रच दी.
(क्रमशः)

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