॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

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गुजराती अलग्योज्ञा “हरखा”

Posted by सागर नाहर पर 21, जनवरी 2016

Facebook Memories… Posted on Jan 20’2014

गुजराती पत्रिका चित्रलेखा का दीपावली विशेषांक 2006 में योगेश पंड्या की कहानी “आंगळियात” (उंगली पकड़ कर आने वाला) पढ़ रहा हूँ। कहानी का नायक “हरखा” प्रेमचन्द की कहानी “अलग्योज्ञा” के “रग्घू” से मिलता जुलता लग रहा है।

त्रिभोवनदास का विवाह पैंतीस पार उम्र में एक विधवा समता से हुआ जो अपने पहले पति की सन्तान के साथ सात साल के “हरखा” उंगली पकड़ कर लेकर आती है। विवाह के छठवें साल में दो जुड़वा बच्चों शान्तिलाल और भोगीलाल को जन्म दे कर समता चल बसती है। हरखा अपने दोनों भाईयों और अपने बीमार पिता की मानों माँ बन कर सेवा करता है। दोनों बच्चे बड़े होकर अपनी मर्जी से विवाह कर लेते हैं और पिता की परवाह किए बिना शहर चले जाते हैं।

त्रिभोवनदास के मन में यह बात हमेशा कचोटती रहती है कि वह हरखा का विवाह नहीं कर सके लेकिन हरखा को इस बात का कतई दु:ख नहीं है वह हमेशा पिता की सेवा को ही अपना सौभाग्य मानता है।

शान्तिलाल और भोगीलाल एक दिन जायदाद के बँटवारे के लिए अपने पिता को परेशान करते हैं, त्रिभोवनदास कह देते हैं कि जायदाद के दो हिस्से होंगे एक “हरखा” का और दूसरे में तुम दोनों का। दोनों नाराज होकर अदालत में केस कर देते हैं, इधर कोर्ट के चक्करों और अपने दोनों बच्चों के कारण चिढ़े त्रिभोवन दास अपनी सारी जायदाद हरखा के नाम कर सिधार जाते हैं।

शान्तिलाल-भोगीलाल जायदाद हथियाने के लिए एक खराब चरित्र की स्त्री काली को हरखा के घर में भेजते हैं, जो हरखा पर अपने शील भंग करने का आरोप लगाती है, पर हरखा पहले ही उसे गुंडों से बचा कर उसे बहन मान चुका होता है। पुलिस के सामने हरखा के एक तमाचे से काली सब बक देती है कि उसे पैसे देकर शान्तिलाल और भोगीलाल ने भेजा था।

अपने सहोदर भाईयों की इस करतूत से दु:खी हो कर हरखा अपनी सारी जायदाद दोनों भाईयों के नाम कर घर छोड़ कर चला जाता है।

प्रेमचन्द की कहानी अलग्योज्ञा का अन्त “मुलिया” और “केदार” के विवाह के साथ सुखद होता है लेकिन आंगळियात का अंत दुख:द।

लेकिन जब भी मैं यह कहानी पढ़ता हूँ मन रग्घू और हरखा में तुलना करने लगता है।

अलग्योज्ञा

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