पापाजी जब भी फुर्सत में अलग- अलग विषयों पर बातें होती थी। एकाद बार साहित्य-कविता की चर्चा चली और बात कविता पर आई तो कन्हैया लाल सेठिया (kanhaiya Lal Sethiya) की सुप्रसिद्ध कविता “पाथळ अर पीथळ” की बात निकली, पापाजी ने कविता देख कर बताया कि यह कविता सही नहीं है। मूल कविता में से इस कविता में कुछ शब्दों का फेर है। बात उस दिन अधूरी रह गई, पिछले महीने २ सितम्बर को पापाजी के जाने के बाद जब मैं, बड़े भाई साहब और मम्मीजी बैठ कर उनके कागजों को देख रहे थे तब अचानक एक पुराने से कागज पर यह कविता दिख गई।
पूरी पढ़ने पर मैं भी चकित रह गया, उसमें एक लाइन में बहुत बड़ा बदलाव था, यह बदलाव किसके दबाव में और कैसे हुआ होगा यह पता नहीं लेकिन उस खास एक लाइन के निकल जाने से मुझे कविता का प्रभाव थोड़ा सा कम होता महसूस हुआ। नीचे पूरी कविता फिर से लिख रहा हूँ जिन्होने इसे पहले पढ़ी है, वे के बार फिर से पढ़ें। जो बदलाव हैं वे Bold और लाल रंग में है।
पीथल और पाथलः कन्हैयालाल सेठिया
अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरयो चीख पड़्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड़्यो घणो हूं सह्यो घणो, मेवाड़ी मान बचावण नै
हूं पाछ नहीं राखी रण में, बैरयाँ री खात खिंडावण में, (बैरयाँ रो रगत बहावण नैं)
जद याद करूं हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूं जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूं , भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मै’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाळ्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
ऐ हाय जका करता पगल्या फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया, हिंदवाणी सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो तूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड़्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां? है आण मनैं कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां हूं सेस लपट आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूं दिल्ली (मलैच्छ) तनैं समराट् सनेशो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण करयो बिसवास नहीं जद बांच बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै रजपूती (वीर करारी हो) गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैरयाँ रै मन रो कांटो हो बीकाणूं पूत करारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी (सांचे) तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो राणा री हार बंचावण नै,
म्हे बांध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख (बाँच) हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़?
मर डूब चळू भर पाणी में (तू थोथा गाल बजावै हो) बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै कुण रजवट रै रजपूती खून रगां में है?
जद पीथळ कागद ले देखी राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं आ बात सही, बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो स्याळां रै सागै सोवैलो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो बादळ री ओटां खोवैलो,
म्हे आज सुणी है चातगड़ो धरती रो पाणी पीवैलो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जूणां जीवैलो,
म्हे आज सुणी है (छतां) थकां खसम अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ राणा नै लिख भेज्यो, आ बात कठै तक गिणां सही?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही राणा री आंख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूं कायर हूं नाहर री एक दकाल हुई,
हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूं घोर उजाड़ां में भटकूं पण मन में मां री याद रवै,
हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,(धरम निभाऊंला)
ओ सीस पड़ै पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान झुकाऊंला, (घटाऊंला)
पीथळ के खिमता बादळ री जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तरवार थकां कुण रांड कवै है रजपूती?
म्यानां रै बदळै बैरयाँ री छात्यां में रैवैली अब सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकैलो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्यां ऐंठ्योड़ी (मोडयोड़ी) लोही री नदी बहा द्युंला
(हूँ तुर्क कहूंला अकबर ने)
हूं अथक लड़ूंला अकबर स्यूं, उजड़्यो मेवाड़ बसा द्युंला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणी सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।
यहाँ यह लाईन “हूँ तुर्क कहूंलां अकबर ने” की जगह हूँ “अथक लड़ूलां अकबर स्यूं” इस लाइन में बदलाव का कारण समझ में नहीं आया, क्या इस शब्द “तुर्क कहूंला” पर किसी को आपत्ति थी..?
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पीथल और पाथलः कन्हैयालाल सेठिया, अरे घास री रोटी ही , पातळ’र पीथळ, ज्ञान दर्पण