॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

अब पता चला बच्चू!

Posted by सागर नाहर पर 19, मई 2009

श्रीमतीजी गर्मी की छुट्टियां मनाने गाँव गई है बच्चों को साथ लेकर!  दो साल बाद गई है सो कह कर गई है कि डेढ़ महीने से पहले नहीं आने वाली, इधर अपनी हालत यहां पतली होती जा रही है।

जब निर्मला यहां थी, और मैं किसी काम से घर जाता; किसी भी समय तो वे या तो रसोई में कुछ काम कर रही होती या बर्तन मांज रही होती या फिर और कोई काम कर रही होती। कभी फुर्सत से पढ़ते लिखते  या कम से कम टीवी देखते भी नहीं पाया।
मैं रोज  उन पर चिढ़ जाता था।

पता नहीं जब देखो काम काम, हमेशा किचेन में या बाथरूम में घुसी रहती हो, काम है कितना बस खाना बनाना,  कपड़े धोना, पोछा लगाना घर की साफ सफाई रखना…और, और, और। पता नहीं कितना धीरे धीरे काम करती हो।  बस इतने से काम को करने के लिये तुम्हारे लिये समय कम पड़ता है!

पर अब जब वे यहां नहीं है तो पता चलता है कि कितना मुश्किल होता है, सुबह छ: साढ़े छ:  उठ कर  घर का काम शुरु करता हूं। पर काम है कि पूरा होता ही नहीं।
खाना बनाना सीखने के लिये घर के सब लोग दबाव डालते थे तब कहता था इसमें सीखना क्या? बस आटा गूंदो और रोटी बेल कर सेको। सब्जी तो यूं यूं बन जाती है।
यह  जितना आसान लगता था  आज जब आन पड़ी है तो उतना ही मुश्किल। आटा गूंदना कोई आसान काम नहीं दस दिन में चार बार तो आटे में पानी ज्यादा पड़ गया और उसे बराबर करने के लिये दो समय के खाने जितना आटा हो गया।  एक बार आटा इतना कड़क हो गया मानो रोटियांनहीं पापड़ बनाने हों।

इधर जब रोटी बेलता हूं तो तवे की रोटी जल जाती है, तवे की रोटी को संभालता हूं तो दूसरे गैस पर रखी सब्जी बढिया सी नये रंग की बन जाती है, ये रंग मेरे चेहरे से थोड़ा ही हल्का  होता है, कभी तो मेरे चेहरे के रंग को मात देती सब्जियां भी बन जाती है।
एक काम करता हूं तो दूसरा रह जाता है, कभी रोटी कच्ची रह जाती है तो कभी नई रोटी बेल नहीं पाता और तवा खूब गरम हो जाता है नई रोटी डाली नहीं कि तवे से चिपकी नहीं।

चलो जैसे तेसे खाना बन गया है, अरे अभी तो  तीन दिनों के कपड़े धोने है, और आठ बजने आई। मन कहता है क्या करूं कपड़े कल धोंऊं? लेकिन कल फिर चार जोड़ी हो जायेंगे, चार जोड़ी धोते धोते तो कमर टूट जायेगी।और फिर कल खाने का क्या होगा? मन मसोस कर एक जोड़ी कपड़े धोता हूं। अरे  आज तो झाड़ू भी नहीं लगा,  पोछा तो दस दिन में एक बार लगा! है भगवान क्या क्या करूं? अभी तो खाना बनाया उसके बरतन भी मांजने हैं। चलो जाने दो सब काम छोड़ देता हूं, कल खाना होटल में खा लूंगा।  दुकान खोलने में   ज्यादा देर हुई तो ग्राहक चिढ़ेंगे।

कितना आसान है ना पत्नियों पर चिढ़ना। है ना ?

🙂

यह पोस्ट लिखने के बाद आज सुबह बनाई हुई तुरई की सब्जी खाने बैठा तो पता चला कि नमक दोनो ( शायद दो दिनों के) समय की सब्जी का तुरई की सब्जी में ही डाल दिया है, भला हो कि रात को दही जमा दिया था सो उससे खाना का लिया गया। वरना दौ कौर खाने के बाद तो जीभ पर नमक की वजह से छाले पड़ गये हैं।

36 Responses to “अब पता चला बच्चू!”

  1. रचना said

    ये बात सही हुई निर्मला जी की तारीफ़ भी हुई और उनकी याद भी आ रही हैं ये भी जाहिर होगया और सबसे बड़ी बात आप दुबारा सक्रिए हुए । खाना बनाए के लिये दाल रोटी चावल ब्लॉग पढे और फिर निर्मला जी के आने पर एक नयी डिश बना कर खिलाये ।

  2. बच्चों को छोड़ जातीं तो और मजा आता. आभार

  3. गर्मी जी छुट्टियों मे इस प्रकार की “सजा” कई पतियों को मिलती रहती है, हमारे जैसों के साथ दिक्कत ये होती है कि सुबह नौ बजे दुकान खोलना है और रात को आते-आते भी दस बज जाते हैं, तब भला घर के काम करें तो करें कब? हमारे साथ भी यह हाल ही में बीत चुकी है, तब हमने टिफ़िन सेन्टर से टिफ़िन लगवा लिया था और आराम से रहे… आप भी ऐसा ही करें… इस “सजा” को “मजा” में बदलना आपके ही हाथ है, सुबह आराम से 7 बजे सोकर उठें, विविध भारती सुनते हुए अखबार पढ़ें, और नहा-धोकर दुकान पहुँचें, काहे रोटी-सब्जी-नमक-तेल के चक्कर में पड़े हैं…। “रामदुलारी मैके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई…” गुनगुनाना छोड़िये…

    • सुरेशजी
      मैं भी टिफिन भी मंगवा लेता पर परेशानी यह है कि आस पास में कोई शाकाहारी रेस्तरां नहीं है, एकाद बड़े होटल है उसमें परसों खाना खाया था सिर्फ दाल फ्राई और दो रोटियां ली थी जिसका बिल मात्र 110/- ( एक समय का) हुआ था।
      जैन समाज का भोजनालय है जो तीन कि.मी. दूर है, दोपहर की धूप में वहां जाना बहुत मुश्किल है, और फिर उनका टाईम टेबल एकदम फिक्स है दोपहर 1.30 से पहले खा लो और शाम 5.30 से पहले, बताईये क्या शाम को इस समय वहां जा पाना संबव है?
      इस बार तो सचमुच हमारी खटिया खड़ी कर गई, रामदुलारी। 🙂

  4. kajalkumar said

    श्रीमतीजी गर्मी की छुट्टियां मनाने गाँव गई है बच्चों को साथ लेकर! दो साल बाद गई है सो कह कर गई है कि डेढ़ महीने से पहले नहीं आने वाली…..
    मुबारक हो 🙂

  5. archanachaoji said

    श्रीमती जी को बुलाने का आसान सा उपाय—-(शायद जल्दी ही लौट आयें )
    (चल री सजनी अब क्या सोचे)—

    “गई हो जो सजनी तो जल्दी ही लौटें ,
    किचन में हो जायेंगे कॊकरोच छोटे—
    गई हो जो —

    रोटी जल जाए सब्जी जो छौंके,
    सब्जी जल जाए रोटी जो पलटें,
    रोटी जले , सब्जी जले ,हलके-हल्के —
    गई हो जो सजनी —-

    कमर टूट जाए कपडों को धोके ,
    कभी ना हो पाए झाडू और पोछे
    आ भी जाओ काम करेंगे हम तुम मिलके—
    गई हो जो सजनी —-

  6. वाह, निर्मला जी की भी याद आ रही है और उनके काम की भी। चलिए आपको उनके काम का मह्त्व तो पता चला।
    घुघूती बासूती

  7. मजे लो आज़ादी के. अब आज़ादी की कोई कीमत भी तो चुकानी पड़ती है कि नहीं. जरा सा काम करना है बस… 🙂 फिर टोका टाकी से मुक्ति.

  8. LOVELY said

    हा हा हा ..मुझे कितनी हंसी आ रही है यह पूछिये मत ..अब आया ऊंट पहाड़ के निचे. यह रोना -पीटना मैं नही देख सकी कभी ..उन्हें अच्छा खाना बनाना आता है ..कितना मजा आता नही आता तब 🙂

  9. amit said

    एक काम करता हूं तो दूसरा रह जाता है, कभी रोटी कच्ची रह जाती है तो कभी नई रोटी बेल नहीं पाता और तवा खूब गरम हो जाता है नई रोटी डाली नहीं कि तवे से चिपकी नहीं।

    तवे को तेज़ आंच पर न रखेंगे तो ऐसा न होगा। 🙂 बचपन में जब मुझे पहली बार रोटी और परांठे सेकने का शौक चढ़ा था तो मेरे साथ भी ऐसा हुआ था, तब माता जी ने सिखाया था कि कैसे किया जाए। उसके बाद से रोटी/परांठे सेकने एकदम मस्त आ गए लेकिन आटा गूँथना आज भी नहीं आया! 😉

    बाकी आपके आसपास कोई दक्षिण भारतीय डोसा आदि का जुगाड़ तो होगा या लोकल कोई अन्य शाकाहारी जुगाड़? एक दिन वहाँ खा लीजिए और उस दिन घर में खाना न बना के कपड़े धो डालिए!! कपड़े धोना बहुत ही आफ़त का काम है चाहे गर्मी हो या सर्दी, यह तो मैं अनुभव से कह सकता हूँ, यह भी करके देखा है, एक बार में ही तौबा बोल गई थी!! 😦

  10. आगे से पत्नी को जरा जल्दी जल्दी जाने को कहो, ताकि रियाज बना रहे. 🙂

    आंटे दाल का भाव जान लेने से पेट नहीं भरता, बाबू!!

    हमें तो मजा आ गया आपका हाल देख कर. 🙂

    • सबसे मजेदार सुझाव आपका ही रहा भाई साहब, जल्दी जल्दी भेजने वाला।
      आज सब को मेरे हाल पर मजा रहा है, चलिये यह भी ठीक है, अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे भी बीत ही जायेंगे।
      🙂

  11. वाह! आया ऊंट पहाड़ के नीचे! 🙂
    (वैसे मेरी पत्नीजी भी जाने वाली हैं दो हफ्ते के लिये। तब मैं आपकी पोस्ट टीप कर लिखूंगा!)

  12. सच कहा आपने…. दोनो मे से कोई भी घर से चला जाए…तो घर घर नही सिर्फ मकान ही लगता है.. हम इस एहसास को अच्छी तरह से समझते हैं..

  13. दो साल बाद गई हैं? आपके साथ पूरी सहानुभुति है, सच कहा है बुजुर्गों से तो ज्ञान लेते नही हैं तो भुगतिये अब. हमारा क्या? बिन ,मांगी सलाह तो हम खुद अपने आप को भी नही देते हैं, 🙂

    रामराम.

  14. anil kant said

    ha ha ha ha
    aisa hi hota hai bhaiya
    waise abhi hum theek se nahi jante kunware jo thehre

    मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति

  15. देखो लोग कित्ता मौज ले रहे हैं। हम सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं। जल्दी से अच्छे कुक बन जाओ! 🙂

  16. Mishra; RC said

    धोने को न कहो बस चाहे कपड़े या बर्तन बाकी किसी भी टाइप का खाना हो सब संश्लेषित कर लेते हैं। आप भी सीख जाओगे शुरुआत मे थोड़ी मुश्किल होती है बस 😀

  17. सही है, एकदम सही फंसे हो। लगे रहो।
    वैसे सबसे पहले तो आजादी मुबारक। हमारे यहाँ कुवैत मे हमारे मित्रमंडली मे एक परम्परा है। जिसकी बीबी/परिवार इंडिया जाता है, वो आजादी को मनाते हुए सारी मित्रमंडली को पार्टी देता है। इस लिहाज से आप भी पार्टी दो ( और हाँ तुरई की सब्जी हम नही खाते, पहले से ही बता देते है, इसलिए सेकेन्ड का माल टिकाने की कोशिश कतई ना की जाए।)

    कपड़े धोने की क्या जरुरत है, एक दो परफ्यूम ले आओ, सुबह शाम छिड़क लो, सोचो कि उत्तरी ध्रुव मे रहते हो। ज्यादा से ज्यादा एक जींस खरीद लो, कम से कम १५ दिन तो चल ही जाएगी।
    खाने की भी चिंता मती करो, लिक्विड डाइट पर रहो, थोड़ा वजन कम होगा तो भाभी लौटकर खुश होंगी और आपको भी कहने के लिए एक मुद्दा मिल जाएगा कि हम तुम्हारी याद मे पतले हो गए।

    एक बार फिर से आजादी मुबारक।

  18. श्री सागरभाई,
    आप लोगो को बोलते है, कि ‘बच्चू, हमारे दु:ख़ पर हंसो’ वैसे आपने सभी को हसाने के लिये ही लिख़ा है, और यह टिपणी भी आपने एक बार फ़िर हसाने के लिये ही की है तो हम आप के दो बार शुक्रगुज़ार है । और टिपणी करने वालोने भी हसाया जैसे काजलजी और अर्चनाजी । आशा है कि इन पोस्टो की एक किताब भविष्यमें आप कोई जाने माने प्रकाशक द्वारा प्रस्तूत करेंगे और वह खूब बिके । वैसे इन टिपणी कारॉं को बिनती है कि रेडियोनामा पर उनमें से कई लोग पहेले लिख़ते थे पर काफ़ी समय से गायब है चाहे पोस्ट लेख़क के रूपमें या टिपणीकार के रूपमें । तो वहाँ भी अपनी हाज़री का अहसास करवायें । चाहे गलती बताते हुए ही सही ।
    पियुष महेता ।
    सुरत-395001.

  19. hempandey said

    पूरी पोस्ट का सार –

    ‘कितना आसान है ना पत्नियों पर चिढ़ना।’

  20. हम तो आज ही पढ़ पाये।
    आपबीती के बहाने हास-परिहास बढ़िया है

  21. anurag anveshi said

    सगार भाई, अगर ये पोस्ट मैंने पढ़ी होती तो यकीन मानों अनिता जी के साथ मैं भी उनके मायके जाने की तैयारी कर लेता। खैर, वह आज चल रही हैं। कल तो दिल्ली पहुंच ही जाएंगी। मेरी दिल्ली मुझसे दूर नहीं। 🙂

  22. kavita said

    kya kahu sagarji padh kar maja bhi aayaa aur aapki imandar swikrati par khushi bhi hui.

  23. […] on नरेन्द्र मोदी एक नये रूप …kavita on अब पता चला बच्चू!दिनेशराय द्विवेदी on आपने सुरत के […]

  24. aradhana said

    ही ही ही ही ! खाना बनाना सबको आना चाहिये. मैं भी ऐसे ही टालती रहती थी, जब दीदी की शादी हो गई और वो ससुराल चली गईं, तो मुझे पता चला कि ये कितना ज़रूरी है. मेरी भी हालत ऐसी होती थी. पर मैंने कुछ ही दिन में सीख लिया था, आप भी सीख जायेंगे, बस भाभी जी के आ जाने पर भी प्रैक्टिस छोड़ियेगा मत.

टिप्पणी करे