एक मुस्लिम विद्वान: डॉ. कल्बे सादिक
Posted by सागर नाहर on 6, सितम्बर 2006
आज कल आए दिन मुस्लिम उलेमाओ के फ़तवे पढ़ने को मिलते है, कभी वन्देमातरम, कभी गुड़िया प्रकरण तो कभी इमराना प्रकरण! परन्तु कई बार न फ़तवों के बीच मुस्लिम विद्वान मौलाना डॉ कल्बे सादिक के विचार पढ़ने को मिलते रहते हैं, जो आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष भी हैं । श्री सादिक के विचार एवं वकत्वय मुस्लिम विचारधारा की बजाय वास्तविकता के धरातल पर होते हैं।
इस बार कल्बे सादिक का वंदे मातरम के बारे में कहना है कि अगर वंदे मातरम् का अर्थ मातृभूमि को सलाम करना या उसकी प्रशंसा करना है तो मुसलमानों को कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए और वंदे मातरम् कोई अहम या बड़ा मुद्दा नहीं है, उससे बड़ा मुद्दा तो अशिक्षा का है जिसकी वजह से कई बार मुसलमान गुमराह हो जाते हैं। शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए 7 सितंबर को मुसलमान बच्चे को स्कूल ज़रूर जाना चाहिये और वहाँ प्रार्थनाओं में हिस्सा लें और वे वहाँ ‘वंदे‘ शब्द के बिना ही राष्ट्र गीत गा सकते हैं.। क्यों कि अगर इसका अर्थ पूजा या इबादत से है तो मुसलमानों को इस पर एतराज़ होना स्वाभाविक है क्योंकि इस्लाम साफ़ शब्दों में बताता है कि अल्लाह को छोड़कर किसी और की पूजा नहीं की जा सकती“|
मुस्लिम समाज में बढ़ती आबादी के बारे में भी श्री सादिक के विचार है कि इस्लाम में स्पष्ट है कि जनसंख्या पर नियन्त्रण होना चाहिए और यह समय का तकाजा भी है| और जब इस्लामी देशों में परिवार नियोजन की अनुमति है और ईरान जैसे देश में भी ये लागू किया गया जहाँ उलेमा (मुस्लिम धर्मगुरु) सत्ता में हैं, तो हिंदुस्तान के मुसलमानों में इस बारे में जागरूकता क्यों पैदा नहीं की जा सकती?”बच्चों के पैदा होकर मर जाने से क्या ये बेहतर नहीं कि बच्चे पैदा ही न हों?
मौलाना सादिक मस्जिद में महिलाओं के नमाज पढ़े जाने को जायज ठहराते हैंउनका कहना है कि इस्लाम में पुरुष और महिलाओं को एक साथ नमाज पढ़ने में कहीं मना ही नहीं है। आप का कहना है कि औरतों के साथ मर्दों का नमाज पढ़ना सुन्नत/जायज है। पश्चिमी देशों में नमाज एक साथ ही पढ़ी जाती है। उन्होंने कहा कि मुसलमानो के सबसे बड़े धार्मिक स्थल काबा में दोनों सामूहिक रूप से एक साथ नमाज अदा करते हैं। उन्होंने भारत में भी स्त्रियों और पुरुषों की एक साथ नमाज अता करवाई है।
एसएमएस के जरिए तलाक दिए जाने को भी मौलाना सादिक गलत मानते हैं,वे कहते हैं कि निकाह से ज्यादा कठिन तलाक देना है। हालांकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कुछ अन्य सदस्यों से तलाक के तरीके पर उनका मतभेद है। उनका कहना है कि तीन बार तलाक कहे जाने पर भी तलाक नहीं हो सकता,जबकि बोर्ड के कुछ सदस्य तीन बार तलाक कह देने पर ही तलाक को वैध मान लेते हैं।
काश सारे मुस्लिम विद्वान और उलेमा, मौलाना सादिक कल्बे के विचारों से सहमत हों जायें तो हो सकता है कि मुस्लिम समाज में बढ़ती अशिक्षा और पिछड़ापन अपने आप दूर हो जायेगा।
अतुल said
आज जरुरत इस बात की है कि मुस्लिम विद्वान जो प्रगतिशील धारा के हैं उनके विचार भी आवाम के सामने लाये जाये। पर मीडिया चाहे वह पथरचिमि हो या भारतीय इस्लाम का विद्रूप चेहरा दिखाने में ही मशगूल रहता है। जब हम मिरा नायर के अठ्ठारहवी सदी के सती चित्रण पर भड़क सकते हैं तो इमराना प्रकरण या एसएमएस तलाक पर क्यों नही? मुस्लिम समाज में सब के सब जाहिल नही, सब के सब जेहादी नही, उन्हें लेबलाईज करना , जनरलाइज करके राष्ट्रद्रोही , आँतकवादी करार देना भी एक तरह कि फतवेबाजी नही तो और क्या है?
जरूरत आज सूफी धारा को आगे बढ़ाने और मौलाना कल्बे सादिक सरीखे विद्वानो के बी विचार सुनने की है। सागर भाई साधुवाद के पात्र हैं।
समीर लाल said
आप वाकई साधुवाद के पात्र हैं, क्या शोध है! अच्छा लगा भाई, आपकी मेहनत देख कर.
शुभकामनायें…
ratna said
Good Work, Keep it up.
SHUAIB said
जनाब कल्बे सादिक की बात सही है – मगर सागर भाई ये जनाब शिया फिरके से हैं जिसे दूसरे सुननी मुसलमान नही मानते। मैं भी कल्बे सादिक की चंद बातों से इत्तेफाक करता हूं।
pratyaksha26 said
डा. कल्बे सादिक के विचार आपने सबके सामने लाया , अच्छा लगा
संजय बेंगाणी said
मेरा सदा से मत रहा हैं की प्रगतेशील मुस्लिम विद्वानो को आगे लाना चाहिए, अगर मुस्लिम इस काम में बाधक बने तो हिन्दूओ को उन्हे समर्थन दे कर आगे बढ़ाना चाहिए. इसी में मुस्लिमो की तथा देश की भलाई हैं.
सादिकजी (जी से मुस्लिलमानो को आपत्ति हो तो पता नहीं) जैसो को प्रचार मिलना चाहिए जबकी होता यह हैं की टूचे छोटे मोटे मोलवी खुराफ़ात कर सारा प्रचार ले जाते हैं और मुझ जैसे लोग उन्हे कोसने लग जाते हैं.
सागर भाई अच्छा किया हैं आपने.
Jitu said
हर कौम मे मानसिक रुप से प्रगतिशील और पिछले लोग होते है। लेकिन सवाल यही है कौम मे प्रगतिशील लोगों का बहुमत है या अल्पमत। अक्सर देखा गया है, प्रगतिशील लोगों की आवाज को अनसुना कर दिया जाता है। आज मुसलमान समाज फिर एक दोराहे पर खड़ा है, एक तरफ़ एकता, प्रगति, शिक्षा, स्वावलम्बिता है तो दूसरी तरफ़, अशिक्षा, द्वेष, जिहाद, कट्टरता और धर्मान्धता है। देखना यह है प्रगतिशील लोगों की सुनी जाती है या कठमुल्ले मौलवियों की मानी जाती है।
फैसला आम मुसलमान को ही करना है, जो आप इन्सान की तरह रोजी रोटी के लिए मेहनत कर रहा है।
Razia mirza said
सागर जी, सबसे पहले आपका शुक्रिया अदा करुंगी जो आपने मेरे ब्लोग पर बडे अच्छे कमेन्ट दीये.दुसरा शुक्रिया ये अदा करुंगी कि आप डो.कल्बे सादिक साहब की बात अपने ब्लोग के ज़रीये जनता के सामने लाये। मै भी डो.कल्बे सादिक़ साहब की बात से संपूर्ण सहमत हुं।आभार।